(Sample Material) रेलवे भर्ती बोर्ड (RRB आरआरबी) परीक्षा के लिए अध्ययन सामग्री: सामान्य ज्ञान - "मध्यकालीन भारत"
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तुर्क आक्रमण
तुर्की आक्रमण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। तुर्की शासन व्यवस्था जनजातीय संगठन पर आधारित थी। यामिनी वंश का संस्थापक अलप्तगीन था। उसने गजनी को अपनी राजधानी बनाया। अल्पतगीन का पुत्रा सुबुक्तगीन प्रथम तुर्की शासक था जिसने भारत पर आक्रमण किया। सुबुक्तगीन के विजयों से उत्साहित होकर महमूद गजनवी ने 1000 ईॉ से 1027 ईॉ तक भारत पर 17 बार आक्रमण किया। महमूद का अंतिम आक्रमण 1027 ईॉ में जाटों पर हुआ। महमूद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आक्रमण गुजरात में समुद्र तट पर स्थित सोमनाथ (1025 ईॉ) पर था। उस समय यहां का शासक भीम प्रथम था।
सल्तनत काल
गौरी वंश का उदय 12 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। गौरी साम्राज्य का मूल क्षेत्रा उत्तर- पश्चिम अफगानिस्तान था। आंरभ में यह गजनी के अधीन था। गौर वंश प्रधान था। जिसका नाम शंसबनी था। मुहम्मद गौरी इसी वंश का था। मुहम्मद गौरी का प्रथम आक्रमण 1175 ईॉ में मुल्तान पर हुआ। उस समय मुल्तान पर करमाथी जाति के मुसलमान शासक थे। 1191 ईॉ में हुए तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वी राज चैहान ने गौरी को परास्त किया किंतु अगले ही वर्ष 1192 ईॉ में वह गौरी से पराजित हो गया। तराइन के युद्ध के बाद भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई। 1193 ईॉ से दिल्ली भारत में गौरी की राजनीतिक गतिविधियों का कंेन्द्र थी। 1194 ईॉ में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज के शासक जयचंद को चंदावर के युद्ध में हराया। 1206 ईॉ में गौरी की मृत्यु के बाद ऐबक ने भारत में गुलाम वंश की नींव डाली।
गुलाम वंश
कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। वह दिल्ली का प्रथम तुर्क शासक था। सिंहासन पर बैठने पर उसने सुल्तान की उपाधि नहीं ग्रहण की। ऐबक ने न अपने नाम का खुतबा पढ़वाया और न ही अपने नाम के सिक्के चलाए। बाद में गौरी के उत्तराधिकारी महमूद ने उसे सुल्तान स्वीकार कर लिया। ऐबक ने प्रसिद्ध सूफी सन्त ‘ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ के नाम पर दिल्ली में कुतुबमीनार की नींव रखी जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया। 1210 ईॉ में चैगान खेलते समय घोड़े से अचानक गिर जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। कुतुबुद्दीन का दामाद व उत्तराधिकारी इल्तुमिश तुर्क था। इल्तुमिश ही दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार (गवर्नर) था। मुहम्मद गौरी ने 1206 ईॉ में खोखरों के विद्रोह के समय इल्तुमिश की असाधारण योग्यता के कारण उसे दासता से मुक्त कर दिया।
प्रारम्भ में दिल्ली सुल्तानों ने भारत में प्र्रचलित सिक्कों को अपनाया। मुहम्मद गौरी के सिक्कों पर उसका नाम तथा दूसरी ओर देवी लक्ष्मी की आकृति अंकित मिली है। मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रयोग किए। एडवर्ड टायस उसे ‘धनवानोें का युवराज’ कहा है। उसने सोने का नया सिक्का चलाया जिसे इब्नबतूता दीनार कहता है। उसने सोने एवं चांदी के सिक्कों के बदले अदली नामक सिक्के जारी किए। जिसका वजन 140 ग्रेन चांदी के बराबर था। फिरोज तुगलक ने अद्धा एवं बिख नामक क्रमशः आधे एवं चैथाई पीतल के तांबा और चांदी मिश्रित दो सिक्के चलाए। तांबे के सिक्कों को सल्तनत काल में दिरहम कहा जाता था।
खिलजी वंश
1290ई. में जलालुद्दीन खिलजी सुल्तान की गद्दी पर बैठा। उसका राज्याभिषेक ‘किलोखरी’ में हुआ था। सुल्तान कैकुबाद ने उन्हे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी और आरिज-ए-मुमालिक अर्थात् सेना मंत्राी का पद दिया। आलऊधीन खिलजी ने 1296-1316 ईॉ तक शासन किया। उसने अपने सिक्कों पर स्वयं का नाम ‘द्वितीय सिकंदर’ (सिकंदर-ए-समी) के रूप में उत्कीर्ण कराया। अलाउद्दीन ने गुप्तचर पद्धति को पूर्णतया संगठित किया। इस विभाग का मुख्य अधिकारी वरीद-ए-मुमालिक था। उसके अन्तर्गत अनेक वरीद (संदेशवाहक या हरकारे) थे। अलाउद्दीन द्वारा बनवाया गया अलाई दरवाजा प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना गया है। 1316ई. में अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी (1316-1323ई.) सुल्तान बना। सुल्तान बनते ही उसने अपने पिता के कठोर आदेशों को रद्द कर दिया। उसने स्वयं को ‘खलीफा’ घोषित किया तथा ‘उल-वासिक बिल्लाह’ की उपाधि धारण की। उसकी मृत्यु के पश्चात् ‘नसिरुद्दीन खुसरवशाह’ कुछ समय के लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठा था।
तुगलक वंश
इस वंश की स्थापना गयासुद्दीन (गाजी मलिक) ने 1320 ईॉ में की। सिंचाई हेतु नहर निर्माण करने वाले गयासुद्दीन पहला शासक था। अलाउद्दीन द्वारा चलायी गई ‘दाग तथा चेहरा प्रथा’ को प्रभावशाली ढंग तथा उत्साह से लागू किया गया। सर्वप्रथम गयासुद्दीन तुगलक के समय में ही दक्षिण के राज्यों को दिल्ली सल्तनत में मिलाया गया। इसमें सर्वप्रथम वारंगल था। गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद जौना खाँ या ‘मुहम्मद बिन तुगलक’ (1325-1351ई.) सुल्तान बना। उसके समय तुगलक साम्राज्य 23 युक्तों (प्रान्तों) में बंटा था। मुहम्मद तुगलक ने संाकेतिक तांबे व इससे मिश्रित कांसे के सिक्के जारी किए लेकिन यह प्रयोग पूर्णतया असफल रहा। 1351 में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई ‘फिरोजशाह तुगलक’(1351-1388ई.) सुल्तान बना। फिरोज तुगलक ने हिसार, फिरोजा, फिरोजाबाद (दिल्ली) तथा जौनपुर नामक नये नगर बसाये तथा अनेक नहरें भी बनवायीं। उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगाया। तुगलक वंश का अंतिम शासक ‘नसिरुद्दीनमहमूद’ था, जिसके काल में 1398ई. में तुर्क आक्रमणकारी ‘तैमूर लंग’ ने भारत पर आक्रमण किया व दिल्ली को जमकर लूटा।
सैयद वंश
सैय्यद वंश के संस्थापक खिज्र खाँ ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर को सहयोग प्रदान किया था। खिज्र खाँ ने सुल्तान की उपाधि नहीं धारण की। वह रैयत-ए-आला की उपाधि से ही संतुष्ट रहा। अलाउद्दीन आलम शाह (1443-1451 ईॉ) इस वंश का अन्तिम शासक था।
लोदी वंश
सैय्यद वंश के अन्तिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह द्वारा दिल्ली का शासन त्याग देने के बाद 1451ई. में ‘बहलोल लोदी’(1451-1489ई.) ने सिंहासन पर अधिकार करके लोदी वंश की स्थापना की। उसने बहलोली सिक्के को चलाया जो अकबर के पहले तक उत्तरी भारत में विनिमय का मुख्य साधन बना रहा। बहलोल लोदी का उत्तराधिकारी सिकन्दर शाह हुआ जो लोदी वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक था। नाप के लिए एक पैमाना ‘गजे सिकन्दरी’ उसी के समय से प्रारम्भ किया गया जो प्रायः 30 इंच का होता था। सिकन्दर लोदी के स्वयं के आदेश से एक ‘आयुर्वेदिक ग्रन्थ’ का फारसी में अनुवाद किया गया जिसका नाम ‘फरंहगे सिकन्दरी’ रखा गया। सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्रा इब्राहीम लोदी 1517 ईॉ में गद्दी पर बैठा। उसने राणा सांगा को हराया था। पर 20 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में मुगल वंश के संस्थापक बाबर ने उसे हरा दिया। सल्तन कालीन प्रमुख करों के नाम इस प्रकार हैंµ10 जकात (केवल मुस्लिमों से लिया जाता था), 20 जजिया (गैर-मुसलमानों से लिया जाता था), 30 उस्र या सदका (भूमिकर), 40 खराज (गैर-मुसलमानों से लिया जाने वाला भू-राज्स्व), 50 खम्स (युद्ध में लूटा गया धन, जिसका 4/5 सैनिकों में बांटा जात था व केवल 1/5 राजकोष में जमा होता था, लेकिन अलाउद्दीन खिलजी औरा मुॉ तुगलक ने 4/5 राजकोष में जमा कराया और केवल 1/5 सैनिकों में बांटा)।
दिल्ली सल्तनत का प्रशासन
‘सुल्तान’ की उपाधि तुर्की शासकों द्वारा प्रारम्भ की गई। महमूद गजनवी पहला शासक था जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। दिल्ली सुल्तानों में अधिकांश ने अपने को खलीफा का नायब पुकारा परन्तु कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने स्वयं को खलीफा घोषित किया।
अर्थव्यवस्था
इस्लामी अर्थव्यवस्था सम्बन्धी सिद्धान्त बगदाद के मुख्य काजी अबूयाकूब द्वारा लिखित किताब उल-खराज में लिपिबद्ध है। राज्य की भूमि चार भागों में विभक्त थी- 10 दान में दी गई भूमि लगान मुक्त (अनुदान भूमि) 20 मुक्तियों अथवा प्रान्तपतियों के अधिकार में (इक्ताभूमि) 30 अधीनस्थ हिन्दू राजाओं के अधिपत्य में। 40 खालसा भूमि। बलवन ने प्रान्तों में सीमित रूप से द्वैत शासन की स्थापना की। सल्तनत काल में भू-राजस्व के मुख्यतः तीन तरीके प्रचलित थे-‘बंटाई’ जिसमें वास्तविक उपज में से राज्य के हिस्से का निर्धारण किया जाता था। बंटाई प्रणाली को विभिन्न नामों से जैसे- किस्मत-ए-गल्ला, गल्ला बख्शी अथवा हासिल आदि नामों से पुकारा जाता था। ‘मसाहत’ इसमें भूमि की पैमाइश के आधार पर उपज का निर्धारण किया जाता था। इस प्रणाली को अलाउद्दीन खिलजी ने प्रचलित किया था। ‘मुक्ताई’ यह लगान निर्धारण की एक मिश्रित प्रणाली थी। यह हिस्सा बाँटा प्रणाली पर आधारित थी। मुहम्मद गौरी ने भारत में इक्ता प्रथा की शुरुआत की तथा इल्तुतमिश ने उसे ठोस रूप प्रदान किया। कर निर्धारण के तरीकों में अत्यधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन अलाउद्दीन के शासन काल में हुआ। उसने भूमि की वास्तविक माप पर जोर दिया। अलाउद्दीन ने राजस्व बकाया की वसूली के लिए विजारत की एक शाखा स्थापित की जिसे मुस्तखराज कहा जाता था। गयासुद्दीन पहला सुल्तान था जिसने सिंचाई के लिए नहरें खुदवाई। मुहम्मद बिन तुगलक सम्पूर्ण साम्रज्य को एक ही कर व्यवस्था के अन्तर्गत ले आया जो दो-आब में प्रचलित थी। उसने कृषकों का सोनधर या तकूबी (ऋण) प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने सम्पूर्ण राज्य की आय-व्यय का लेखा तैयार कराया तथा तीन वर्ष के लिए एक अन्वेषण कृषि फार्म खोला।
बहमनी साम्राज्य
दक्कन में अमीरान-ए-सदह के विद्रोह के परिणाम स्वरूप मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम दिनों में जफर खाँ नामक सरदार अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके 347 ईॉ में सिंहासनारूढ़ हुआ और बहमनी साम्राज्य की नींव डाली। उसने गुलबर्गा को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा उसका नाम अहसानाबाद रखा। उसने हिन्दुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में बहमनशाह ने दाभोल पर अधिकार किया जो पश्चिम समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।